भारतीय संविधान/लोकतंत्र से वोट मैनेजमेंट तक

एम0 एस0 चौहान

देहरादून। भारतवर्ष की पहचान सम्पूर्ण दुनिया में एक मजबूत लोकतांत्रिक व्यवस्था एवं व्यावहारिक स्वरूप में रही है एवं भारतवर्ष में कितने ही महापुरूषों द्वारा समता के सिद्धान्त का पालन व अनुसरण किया गया है। भारतीय संविधान 26 नवम्बर 1949 को अपनाया गया एवं 26 जनवरी 1950 को इसे लागू किया गया। यह संविधान भारत के लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी ढ़ांचे को परिभाषित करने वाला आधारभूत दस्तावेज है। पिछले लगभग 7 दशकों में इसने राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तनों के माध्यम से एक लोकतांत्रिक राष्ट्र का मार्ग दर्शन किया है तथा स्वतंत्रता, समानता, न्याय की रूपरेखा एवं आपस में बन्धुत्व की भावना को बल दिया है व सुनिश्चित किया है जो कि भारतवर्ष के शासन का मूल सिद्धान्त है, जिन मूल्यों पर प्रत्येक वर्ष संविधान दिवस मनाया जाता है। नागरिकों के बीच संवैधानिक मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए समाजिक न्याय व समता हेतु अधिकारिता मंत्रालय ने 19 नवम्बर 2015 को घोषणा की कि प्रत्येक वर्ष भारत सरकार 26 नवम्बर को संविधान दिवस के रूप में मनायेगी। वास्तव में इसका पालन राष्ट्र का मार्ग दर्शन करने वाले अनेकता में एकता लोकतांत्रिक सिद्धान्तों की याद दिलाता है। भारतवर्ष का संविधान नागरिकों को न्याय, स्वतंत्रता, बन्धुत्व, समानता एवं अनेकता में एकता की एक मिसाल है। इसकी लोकप्रियता भारतवर्ष के नागरिकों की आम सहमति को भी परिभाषित करती है जोकि भारत के संविधान को और अधिक मजबूती व लोकप्रियता प्रदान करता है परन्तु भारतवर्ष के क्षेत्रीय, जातीय, व धार्मिक आधारों पर की जाने वाली राजनीति भारत के लोकतंत्र के स्वरूप पर वर्तमान समय में भारतीय राजनीति की दशा व दिशा को देखते हुए, नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर यक्ष प्रश्न खड़ा करता है। पिछले कई वर्षों में यह बात सतह से ही स्पष्ट समझी जा सकती है कि जिस प्रकार की राजनीतिक व्यवस्थायें व राजनीति भारतवर्ष के राजनेताओं फिर चाहे वह हिन्दूवादी अथवा मुस्लिम समुदाय से सम्बंधित राजनेता हों अथवा जिस भी धर्म को संबोधित करते हों, की सोच एक प्रजातांत्रिक राष्ट्र के नाते जनता के मध्य देखन को मिल रही है वह भारतवर्ष के लोकतांत्रिक व अनेकता में एकता के स्वरूप पर संवैधानिक मोहर लगाने हेतु पर्याप्त प्रतीत नहीं होती। भारतवर्ष का संविधान भारतवर्ष के नागरिकों को न्याय, स्वतंत्रता, बंधुत्व, समानता जैसे मौलिक अधिकार प्रदान करता है एवं एक संसदीय लोकतांत्रिक सरकार की स्थापना करता है। देश के विविधता और अल्पसंख्यक अधिकारों की रक्षा करता है एवं सरकार के कर्तव्यों, ढांचे एवं शक्तियों को निर्धारित व सुचारू रूप से सुगमता के साथ चलाये जाने हेतु मौलिक व्यवस्था करता है।
किसी भी राष्ट्र के सुव्यवस्थित एवं ठोस निर्माण हेतु उस राष्ट्र का संवैधानिक ढ़ांचा, राजनीतिक सोच अत्यन्त महत्वपूर्ण है जिसका निर्वाह उस देश के राजनेताओं, राजनैतिक स्वरूप व जनता के मौलिक अधिकारों के संरक्षण पर निर्भर करता है एवं किसी भी राष्ट्र की प्रजातांत्रिक व्यवस्थायें नागरिकों के मौलिक अधिकार वहां की राजनीतिक की दशा व दिशा पर निश्चित ही पूर्ण रूप से निर्भर करती है परन्तु भारतवर्ष में जिस प्रकार से मौजूदा दौर की राजनीति एवं राजनैतिक विचारधारा जिस प्रकार से धार्मिक समाज व क्षेत्रीय जातीय समाज के अलग-अलग धड़ों का समर्थन कर राजनेताओं द्वारा राजनीति की जा रही है, भारतवर्ष की लोकतांत्रिक/प्रजातांत्रिक व्यवस्था का स्वरूप वास्तविक धरातल पर भारतवर्ष के प्रजातांत्रिक संवैधानिक ढ़ांचे पर खरा उतरता प्रतीत नहीं होता ना ही भारतवर्ष के संवैधानिक स्वरूप के साथ न्याय करता प्रतीत होता है। यह विषय अत्यन्त चिन्तनीय है एवं वस्तु स्थिति और अधिक विपरीत प्रतीत होती है जबकि भारतवर्ष में मौजूदा दौर की राजनीति चाहे फिर वह किसी भी राजनीतिक संगठन द्वारा की जा रही हो, वोट मैनेजमेंट की अप्रजातांत्रिक राजनीतिक सोच व जनमत के होने का भ्रम भारतीय संविधान के ढ़ांचे को ठेस पहुंचाता दिखाई देता है जोकि भारतीय प्रजातांत्रिक व्यवस्था के विपरीत व नागरिकों के प्रजातांत्रिक व मौलिक अधिकारों के साथ भी तर्कसंगत व न्याय संगत, संविधान संवत, किसी भी दृष्टि से नहीं कहा जा सकता। भारतीय सविंधान भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों व अनेकता में एकता, वसुदेवकुटुम्बकम की सर्वोच्च भावनाओं को संरक्षण प्रदान करने की सहमति व गारण्टी देता है।